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क्या दल-बदल विरोधी कानून की प्रसंगिकता खत्म हो गई है ? क्या यह, ईमानदार नेताओं के लिये गले की हड्डी बन गया है ?

गुस्ताखी माफ
क्या दल-बदल विरोधी कानून की प्रसंगिकता खत्म हो गई है ? क्या यह, ईमानदार नेताओं के लिये गले की हड्डी बन गया है ?

बचपन में एक फिल्म देखी थी , ‘फाइव राइफल्स’ . उस फिल्म में एक गाना था , ‘जबसे सरकार ने नशाबंदी तोड़ दी, मानो या ना मानो हमने पीनी छोड़ दी’ . यानी यदि दल-बदल विरोधी कानून खत्म कर दिया जाएगा तब थोक के भाव दल-बदल होना बंद हो जायेगा . जबसे दल-बदल विरोधी कानून बना है , अनेक भ्रष्ट व शातिर जन प्रतिनिधि , ना-ना तरीक़े ईजाद कर उस कानून को धता बताकर बिंदास दल बदल रहे हैं . और ईमानदार नेता , अपनी पार्टी की हाई कमान व पार्टी के व्हीप की मनमानी को मानने मजबूर हो गये हैं . ब्रिटिश भारत में भी , 1920 से ही निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपने दल में रहने/छोड़ने के लिए स्वतंत्र थे. उन का यह अधिकार छ: दशक तक अबाध रहा, जिससे कभी कोई हानि होने का उदाहरण नहीं है . पर वह स्वतंत्रता 1985  में संविधान संशोधन कर खत्म कर दी गई. उसने पार्टी सुप्रीमो को सांसदों/ विधायकों का मालिक बना डाला .उनके लिए इन जन प्रतिनिधियों की राय बेमतलब हो गई . सुप्रीमो कुछ भी करे, उसके निर्वाचित जन प्रतिनिधि चुपचाप देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकते. क्योंकि उन की विचार व कार्य की स्वतंत्रता छिन चुकी है .  यह दलील कि ‘सांसद को दल-टिकट मिला था, अतः उसे दल बदलने का हक नहीं’ अधूरी बात है. कोई दल रातो-रात भंग, या अन्य दल में विलीन हो जाए तब भी उस के सांसद अपना पद नहीं खोते हैं. संसद सदस्यता दलीय अस्तित्व से स्वतंत्र हैसियत रखती है. अतः दल टिकट को सारा महत्व देकर सांसद के व्यक्तित्व व योग्यता को शून्य बताना गलत दलील है. ऐसे में एक चुने हुए जन प्रतिनिधि की अंतरात्मा की आवाज पूरी तरह मार दी जाती है . अब यह कानून सिद्धांतहीन भी लगता है. उसके अनुसार झुंड में सांसद दल-बदल कर सकते हैं पर अकेले-दुकेले करना दंडनीय है. मानो अकेले धोखाधड़ी करना अवैध हो, पर गिरोह बनाकर वैध हो. इस कानून का सबसे लज्जास्पद प्रमाण यह है कि अनेक सिरमौर राजनेता ही दलबदल कराते रहते हैं. वे विधान सभा/सदन के अध्यक्ष या न्यायपालिका के माध्यम से इस दल-बदल को सही साबित कराते हैं . भारत में जब तक वह कानून न था , तब तक दल-बदल बहुत कम होते थे. दल सुप्रीमो अपने सांसद विधायक के साथ अधिक सम्मानपूर्ण थे. दल-बदल रोक कानून ने समानता का भाव खत्म कर सुप्रीमो को भारी ताकत दे दी. अब वे अपने सांसद विधायक को बंधुआ समझ सकते हैं . आज सत्ताधारी दलों के विचारवान सांसद/विधायक हाथ-पैर बँधे जीव जैसे लाचार, निर्विकार लगते हैं. कहीं भी असुविधाजनक सच कहने वाला प्रायः अकेला होता है. तानाशाही के विरुद्ध उभरने वाला स्वर भी पहले अकेला ही होता है. अतः अभिव्यक्ति और गतिविधि की स्वतंत्रता हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है . अकेले स्वर का अधिकार भी किसी सांसद से ही छीन लिया जाए, तो उसकी व्यक्तिगत प्रतिभा व विचारधारा का क्या अर्थ ? यह घोर विडंबना है कि देश का प्रतिनिधि , देश की सर्वोच्चविचार-सभा में भी, मन की बात बोलने में डरे. यह चुने गए जन प्रतिनिधि की स्वतंत्रता की मूल भावना के विरुद्ध है , यह अनेक पार्टी के सुप्रीमों को तानाशाह बनाने की तरफ अग्रसर करता है . अतः अब यह सोचने वाली बात है कि क्या दल-बदल विरोधी कानून की प्रसंगिकता खत्म हो गई है ?
इंजी. मधुर चितलांग्या, प्रधान संपादक , दैनिक पूरब टाइम्स
(लेखक शंकर शरण जी से साभार )

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